Changes

|रचनाकार=मीर तक़ी 'मीर'
}}
{{KKCatGhazal}}<poem>
इधर से अब्र उठकर जो गया है
 
हमारी ख़ाक पर भी रो गया है
 
मसाइब और थे पर दिल का जाना
 
अजब इक सानीहा सा हो गया है
 
मुकामिर-खाना-ऐ-आफाक वो है
 
के जो आया है याँ कुछ खो गया है
 
सरहाने 'मीर' के आहिस्ता बोलो
 
अभी टुक रोते-रोते सो गया है
</poem>
Delete, Mover, Reupload, Uploader
1,983
edits