|रचनाकार=मीर तक़ी 'मीर'
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{{KKCatGhazal}}<poem>दम-ए-सुबह बज़्म-ए-ख़ुश जहाँ शब-ए-ग़म से कम न थी मेहरबाँ<br>कि चिराग़ था सो तो दर्द था जो पतंग था सो ग़ुबार था<br><br>
दिल-ए-ख़स्ता जो लहू हो गया तो भला हुआ कि कहाँ तलक<br>कभी सोज़्-ए-सीना से दाग़ था कभू कभी दर्द-ओ-ग़म से फ़िग़ार था<br><br>
दिल-ए-मुज़तरिब से गुज़र गई शब-ए-वस्ल अपनी ही फ़िक्र में<br>मेन दिमाग़ था न फ़राग़ था न शकेब था न क़रार था<br><br>
ये तुम्हारी इन दिनों दोस्ताँ मिज़्ह्ग़ाँ जिस के ग़म में है ख़ूँ-चकाँ<br>वही आफ़त-ए-दिल-ए-आशिक़ाँ किसु किसी वक़्त हमसे भी यार था<br><br>
कभू कभी जायेगी उधर् उधर सबा तो ये कहियो उस से कि बेवफ़ा<br>मगर एक "मीर"-ए-शिकस्ता-पा तेरे बाग़-ए-ताज़ा में ख़ार था<br><br/poem>