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|रचनाकार=विद्यापति|अनुवादक=|संग्रह=}} {{KKCatKavita}}<poem>आहे सधि सखि आहे सखि लय लए जनि जाह।<br>हम अति बालिक आकुल नाह।।<br>बालिका निरदए नाह।गोट-गोट सखि सब गेलि बहराय।<br>ब केबाड बहराए। बजर केवाड़ पहु देलन्हि लगाय।।<br>लगाए।ताहि अवसर कर धयलनि सखि जागल कंत।<br>चीर सम्हारइत संभारइत जिब भेल अंत।।<br>अंत।नहि नहि करिअ नयन ढर नीर।<br>नोर। कांच कमल भमरा झिकझोर।।<br>झिकझोर।जइसे डगमग नलिनिक नीर।<br>तइसे डगमग धनिक सरीर।।<br>सरीर।भन विद्यापति सुनु कविराज।<br>आगि जारि पुनि आमिक लाज।। आगिक काज। [नागार्जुन का अनुवाद : ओ सखी, मुझे अन्दर मत ले जाओ। मैं बहुत छोटी हूँ और कन्त बड़े निठुर हैं। हाय, सहेलियाँ एक-एक करके खिसक गईं। जाते-जाते जोरों से किवाड़ लगा गईं। उसी वक़्त कन्त जग गए। मैंने मुश्किल से कपड़ों को सम्भाला, मेरी जान निकल रही थी। ना-ना होती रही। आँखों से आँसू बहते रहे। अधखिले कमल को भ्रमर झकझोरता रहा। कमल के पत्ते पर जैसे पानी काँपता है, उसी तरह सुन्दरी का शरीर थरथरा रहा था। विद्यापति ने कहा, 'आग अपनी आँच से कष्ट पहुँचाती है, फिर भी आग की जरूरत पड़ती है...']<br/poem>