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|रचनाकार=हनुमानप्रसाद पोद्दार
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|संग्रह=पद-रत्नाकर / भाग- 4 / हनुमानप्रसाद पोद्दार
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<poem>प्रभु बोले मुसुका‌ई।

जातें तोरि नाव रहि जावै, सो‌इ जतन करु भा‌ई॥
पाँव पखारु, ला‌इ गंगाजल, अब मत बिलँब लगा‌ई।
सुनत बचन तेहि छिन सो दौर्‌यौ, मन मँह अति हरषा‌ई॥

भर्‌यौ कठौता गंगा-जल सों सब परिवार बुला‌ई।
प्रभु-पद आ‌इ पखारन लाग्यौ, उर आनँद न समा‌ई॥
सुरन बिलोकि प्रेम-करुना अति, नभ दुंदुभी बजा‌ई।

केवट भाग्य सराहि अमित बिधि, सुमन-बृष्टि झरि ला‌ई॥
पद पखारि, सब लै चरनामृत, पुरुखन पार लँघा‌ई।
सीता-लखन सहित रघुनंदन, हरषित नाव चला‌ई॥
</poem>
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