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काँपते कगार / रमेश रंजक

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मुग्धा विस्मित अमराई नहा रही दूर
घाट पर
झाँप रही केसरी बदन केश लहर बिखर-
बिखर कर
धारा में
गन्ध घोलता तैरा हर अंग का निखार ।
दंशित मृदु धमनियाँ बजीं एक साथ एक
ताल में
विद्युत-अणु रेंगते चले आलोकित —
अन्तराल में
अम्बर से
पंख खोलता आर-पार दूधिया उभार ।
धरती की शब्द-चेतना सो गई तुषार
ओढ़ कर
याद भरी गीत की कड़ी अँकुराई पर्त
तोड़ कर
पलकों पर
झूलता रहा प्यास भरा इन्तज़ार ।
</poem>
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