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त्रिभुवनपति करुणायन सुन लेहु बिनती मोरि।
ज्ञान प्रकाश रचना चहहुँ दया चहत हौं तोरि।।3।।
 
मन चाहत सागर भरन बिनु गगरी बिनु डोर।
देहु बुद्धि घट कमल रजु लख कर अपनी ओर।।4।।
 
कृपा तुम्‍हारी से चढ़ैं पंगुल ऊँच पहार।
करहुँ कृपा मोहिं दीन पर निश्‍चय ह्वै जाऊँ पार।।5।।
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