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<poem>
(राग पूर्वी-ताल तीन ताल)

जगत में स्वारथ के सब मीत।
जब लगि जासौं रहत स्वार्थ कछु, तब लगि तासौं प्रीत॥
मात-पिता जेहि सुतहित निस-दिन सहत कष्ट-समुदा‌ई।
वृद्ध भये स्वारथ जब नास्यो, सो‌इ सुत मृत्यु मना‌ई॥
भोग-जोग जब लौं जुवती स्त्री, तब लौं अतिहि पियारी।
बिधि-बस-सो‌इ जदि भ‌ई व्याधि-बस, तुरत चहत तेहि मारी॥
प्रियतम, ‘प्राननाथ’ कहि-कहि जो अतुलित प्रीति दिखावत।
सो‌इ नारी रचि आन पुरुष सँग, पति की मृत्यु मनावत॥
कल नहिं परत मित्र बिनु छिन भर, संग रहे, सँग खाये।
बिनस्यो धन, स्वारथ जब छूट्यौ, मुख बतरात लजाये॥
साँचो सुहृद, अकारन प्रेमी राम एक जग माहीं।
तेहि सँग जोरहु प्रीति निरंतर, जग को‌उ अपनो नाहीं॥
</poem>
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