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<poem>
(राग भूपाली-तीन ताल)

मेरे एक राधा नाम अधार॥
को‌उ देखत निज रूप ब्रह्मा पर निराकार अबिकार।
को‌उ करि निज तादात्य आत्म महँ, जो सम, सर्वाधार॥
को‌उ द्रष्टस्न देखत प्रपंच जिमि मिथ्या स्वप्न-बिकार।
को‌उ निरखत नित दिव्य ज्योति हिय, परम तत्व साकार॥
को‌उ कुंडलिनी कौं जागृत करि, षट चक्रनि करि पार।
पहुँचत सिखर सहस-दल ऊपर, जोग-सिद्धि कौ सार॥
को‌उ अनहद धुनि सुनत दिवस-निसि, अजपा-जाप सँभार।
को‌उ निष्काम कर्म-रत जोगी, को‌उ नित करत बिचार॥
को‌उ कमलापति, को‌उ गिरिजापति नाम-रूप उर-धार।
भक्त-कल्पतरु राम-कृष्ण को‌उ सेवत अति सत्कार॥
हौं जड़-मति, अति मूढ़ हठीलौ, नटखट, निपट गँवार।
राधे-राधे रटौं निरंतर, मानि सार कौ सार॥
</poem>
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