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<poem>
(राग वागेश्री-ताल कहरवा)

शान्ति, दया, स्वाभाविक करुणा, क्षमा, सुहृदता, निर्मल प्रीति।
नित्य अनन्त रूपमें रहतीं, अविचल सर्वभूत-हित नीति॥
तुम इनके अनन्त आकर, तुम सदा सहज सत्‌‌-चित्‌‌-‌आनन्द।
अमित नित्य ऐश्वर्य-पूर्ण तुम, स्वस्थ नित्य, प्रेमिक स्वच्छन्द॥
ऐसे तुममें रहता मैं नित, मुझमें भरे नित्य तुम पूर्ण।
समझ रहा मैं देह मानकर नश्वर निजको नित्य अपूर्ण॥
हर लो प्रभु अज्ञान, बताते रहो सदा अपना संधान।
नित्य तुम्हें पा, देखूँ निजको सुखी, शान्त, नीरोग महान॥
छू पाये न कभी, को‌ई भी, कै्सा भी, सुख-दुःखामर्ष।
हर हालतमें प्राप्त करूँ मैं नित्य तुहारा ही संस्पर्श॥
</poem>
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