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06:57, 26 अगस्त 2014 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=हनुमानप्रसाद पोद्दार
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|संग्रह=पद-रत्नाकर / हनुमानप्रसाद पोद्दार
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<poem>
(राग वसन्त-ताल कहरवा)
उनके होकर हम दुःखी हों तो उनको दुख पहुँचाते हम।
उनके सुखमें यों बाधक बन उनपर कालिमा लगाते हम॥
उनपर यदि है विश्वास हमें तो क्यों इतना सकुचाते हम?
यों भय-विषादके अति वश होनेमें क्यों नहीं लजाते हम?
हमको दुःखी देखकर प्यारे तनिक दुःख यदि हैं पाते।
अति अपराधी, क्यों न हमारे सभी मनोरथ मर जाते?
क्यों न सदा हम सुखी परम हों, उन्हें, खूब सुख पहुँचाते?
क्यों न सदा प्रसन्न-मुख हँस-हँसकर हम उन्हें हँसा पाते?
प्यारे! हँसो, रहो ही हँसते, तुमको खूब हँसायें हम।
प्यारे! सदा प्रसन्न रहो, तुमको अति सुखी बनायें हम॥
तन-मन-बुद्धि तुम्हारे सारे, इनको नहीं रुलायें हम।
वस्तु तुम्हारीको सुख देते संतत शुचि सुख पायें हम॥
</poem>