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11:03, 28 अगस्त 2014 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=पीयूष दईया
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|संग्रह=
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<poem>
कक्कारु पिता कहते थे
कोई नहीं जानता कि कल क्या घटने वाला है
--ओखली मे सर दे कर रुको न रुको
घड़ी रुक जाती है।
सो समझो अतीत मिट्टी है और
मरे पीछे सब समाप्त
यह ज़ख्म जो भरेगा नहीं कभी
धोता हूं इसे
जाते सूरज को देखते वचन दाई के वस्त्र जैसे मैले हैं।
</poem>