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04:10, 1 सितम्बर 2014 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=आशुतोष दुबे
|अनुवादक=
|संग्रह=
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<poem>
किनारे हमेशा इंतज़ार करते हैं
वे नदियों के दुख से टूटते हैं
और उनके विलाप में बह जाते हैं
जब सूखने लगती है नदी
किनारे भी ओझल हो जाते हैं धीरे-धीरे
वे एक लुप्त नदी के अदृश्य किनारे होते हैं
जो चुपचाप अगली बारिश की प्रतीक्षा करते हैं
लगातार बहते हुए वे अपने थमने का इंतज़ार करते हैं
जिससे वे हो सकें
वे अपने होने का इंतज़ार करते हैं
</poem>