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|रचनाकार=नीलोत्पल
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
कहीं जाना नहीं चाहता
बैठा हूं रात में बजती सीटियों से
घबराए सन्नाटे की सिहर देखते
एक किताब की खुलती, बंद होती खिड़की पर
युद्ध ने चारों ओर से घेर लिया
शांति प्रेतों का पाठ लगती है
किताबें हिंसक समय से आजाद नहीं करा पाती
लेकिन सिर्फ़ यहीं एक रास्ता है
डबडबाए अंधेरे में
पूल नहीं, रोशनियां बरसती हैं
रोशनी में नहाया बेसुध
भागता हूं रेलिंग की ओर
उफ कितनी खामोशी है
लोगों की आंखों में
किसी आंख को सच का पता नहीं
सभी चीजों के फेर में है
मैं तन्हां पंक्तियों से गुजरता हूं
पंक्तियां इंसानों के भीतर आधे से कम असर छोड़ती है
या नहीं भी उस वक़्त जब
मछली की आंखे ज्यादा खुली है, हमारी आंखों से
कोई निशाना नहीं है
सब जानते हैं
फिर भी किताबें भरी रहती है
जैसे पानी खेतों की ओर छोड़ा जाता है
धीरे-धीरे गच्च होती मिट्टी
उतार लेती कड़ापन अपनी देह के भीतर
अंधेरे की ओट से
मैं किताबों का कड़ापन छोड़ता हूं
मिट्टी होता हूं
</poem>
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कहीं जाना नहीं चाहता
बैठा हूं रात में बजती सीटियों से
घबराए सन्नाटे की सिहर देखते
एक किताब की खुलती, बंद होती खिड़की पर
युद्ध ने चारों ओर से घेर लिया
शांति प्रेतों का पाठ लगती है
किताबें हिंसक समय से आजाद नहीं करा पाती
लेकिन सिर्फ़ यहीं एक रास्ता है
डबडबाए अंधेरे में
पूल नहीं, रोशनियां बरसती हैं
रोशनी में नहाया बेसुध
भागता हूं रेलिंग की ओर
उफ कितनी खामोशी है
लोगों की आंखों में
किसी आंख को सच का पता नहीं
सभी चीजों के फेर में है
मैं तन्हां पंक्तियों से गुजरता हूं
पंक्तियां इंसानों के भीतर आधे से कम असर छोड़ती है
या नहीं भी उस वक़्त जब
मछली की आंखे ज्यादा खुली है, हमारी आंखों से
कोई निशाना नहीं है
सब जानते हैं
फिर भी किताबें भरी रहती है
जैसे पानी खेतों की ओर छोड़ा जाता है
धीरे-धीरे गच्च होती मिट्टी
उतार लेती कड़ापन अपनी देह के भीतर
अंधेरे की ओट से
मैं किताबों का कड़ापन छोड़ता हूं
मिट्टी होता हूं
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