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विषपायी / स्वप्निल श्रीवास्तव

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हम भी विषपायी हैं
हमने जिंदा रहने के लिए जहर पिया है
लेकिन हमारे कंठ पर जहर का
नीला निशान नहीं है
हम नीलकण्ठ नहीं कहलाना चाहते
हमें पसन्द नहीं है ढोंग
जीवन के मंथन में जो अमृत मिला था
उसे देवताओं ने हमसे छीन लिया
वे हमारा अमृत पीकर अमर हो गये हैं
हम अमृत और विष के विवाद में नहीं पड़ना चाहते
भरपूर जीना चाहते हैं जीवन
हमें इन्द्रासन नहीं चाहिए
हमें अप्सराओं के नृत्य में नहीं है दिलचस्पी
उधार का सोमरस पीकर हम डगमगाना नहीं चाहते
तुम्हें तुम्हारा स्वर्ग मुबारक
हम अपने नर्क में खुश हैं
परवरदिगार
</poem>
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