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<poem>
गहरे पानी मछलियां जल्दी पकड़ में नहीं आतीं
पकड़ भी लो तो हाथ से फिसल जाती हैं
वे बंसी में नहीं फंसतीं
चारे खा जाती हैं
हमारे सामने अठखेलियां करती हुई
पानी में गुम हो जाती हैं
मछलियों के बारे में सोचते हुए
कवि देवेन्द्र कुमार की पंक्ति याद आती है
’क्या मछ‍ली का सीना पाया है इस औरत ने’
मैं उनसे उस मछली का नाम नहीं पूछ पाया
जिसके लिए वे जिन्दगी भर परेशान थे
ये गोताखोर मछलियां कब दिखायी दें
कब गुम हो जायें कोई नहीं जानता
मछलियां नदियों, झीलों, तालाबों में रहती हैं
खूब लम्बा-लम्बा सफर तय करती हैं
किसी न किसी दिन उन्हें पकड़ते हैं मछेरे
उन्हें बाजार में बेचते हैं
बाजार से वे शयनकक्ष होकर हमारे रसोईघर में
पहुंचती हैं
और हमारी अदम्य भूख मिटाती हैं
</poem>
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