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|रचनाकार=प्रांजल धर
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}}
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<poem>
मैं सुभक्ष्य रहा सदैव
तुम्हारे लिए और तुम्हारी ही
उन कामनाओं के लिए जिनमें
बस मैं ही मैं व्याप्त रहा
किसी नियमित सातत्य की मानिन्द.
तुम्हारी सुविधाजीविता से उद्भूत सारे ग़ैर-ज़रूरी संघर्ष
मेरे ही हिस्से आए सदैव
और अनचाहे ही संघर्षों की सन्तति बना मैं.
</poem>
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मैं सुभक्ष्य रहा सदैव
तुम्हारे लिए और तुम्हारी ही
उन कामनाओं के लिए जिनमें
बस मैं ही मैं व्याप्त रहा
किसी नियमित सातत्य की मानिन्द.
तुम्हारी सुविधाजीविता से उद्भूत सारे ग़ैर-ज़रूरी संघर्ष
मेरे ही हिस्से आए सदैव
और अनचाहे ही संघर्षों की सन्तति बना मैं.
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