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साँझ / प्रांजल धर

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सर्द साँझ को
गीत उमड़ उठते हैं
सूरज की उतरती रोशनी में
काफिले के साथ रहने वाले
घण्टे की चीख सुनकर.
कापालिकों के तन्त्र, अनहदनाद
सूफ़ियों के हाल
बाला – मरदाना की कथाएँ
किनारे चली जाती हैं सब,
‘उतने अन्तराल के लिए
जो घण्टी के दो सुरों के बीच होता है.’*
शरद की थकी घास पर टिकी
ओस की बूँदों के आगे
अकिंचन हो जाता सब.
तमाम धर्मोपदेश, यीशु की शिक्षाएँ,
ग्रंथ, पुराण, आख्यान
कुरान की आयतें.
गोलाइयों से भरे सेक्स के मांसल फूल भी.
पुरातत्व में समाए
शुरुआती सिद्धान्तों के बुनियादी मूल भी.
सब अकिंचन हो जाते हैं.

जाग उठती हैं सहसा
भाव-श्रृंगों की कोमल बुनावट
मन के फौलादी बक्से में
ठूँसी स्मृतियों की कसावट.
तरावट, हृदय की.
और मुर्दा शब्दों की थकावट.
अन्दर का आदमी जागता है
इस दुनिया से बड़ी दूर भागता है
एथलीट हो गया है
उसका बदहवास बचा जीवन.
अपने ही आँसुओं में बहता जाता है
पीढ़ियों सँजोया उसका अपना ही उपवन.
ख़यालों का.

साँझ को उमड़े गीतों में
मेघों का कलेजा चीरकर निकली
बिजली की एक तीखी लकीर-सी
कोई ज़िन्दा भावना
बैठ जाती है, अड़ जाती है,
मन के नए पौधे की
आधी झुकी डाली पर.
खड़ा हो जाता पुलिन्दा सवालों का
चकाचौंध रोशनी छा जाती आँखों पर.
सवाल ; सवाल-दर-सवाल, सवालों के जाल
जेम्स लॉग** पर चले अँग्रेजी मुक़दमे की माफ़िक.
भीतरी मन दबे स्वरों में
कमज़ोर उत्तरों की व्यवस्था करता है
दूसरी जाति की लड़की से ब्याह करने के बाद
एक बहिष्कृत जीवन की कुचली लकीरों-सा...
उत्तर सन्तोषजनक हैं या नहीं;
यह जाने बिना रोम-रोम ठिठक जाता है
तब तक काफिले का.
और गुज़र जाती है साँझ ज़िन्दगी की
किसी तरह.



* चर्चित जापानी कवि इजूमी शिकिबू की एक मोहक काव्य-पंक्ति.
** दीनबन्धु मित्र के नाटक ‘नील दर्पण’ का अँग्रेजी अनुवाद प्रकाशित करने के जुर्म में अँग्रेज सरकार ने रेवरेण्ड जेम्स लॉग पर एक रोमांचक मुक़दमा चलाया था.
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