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जीने का साधन / प्रियदर्शन

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बढ़ते जा रहे हैं जीने के साधऩ
सिकुड़ती जा रही है जीने की जगह
सांस भी लो तो हवा का वजन महसूस होता है
पानी गले से नीचे उतरता है जेब पर भारी पड़ता है

अनगिनत आवाज़ें हैं
लेकिन सुनाई बहुत कम पड़ता है
और उससे भी कम समझ में आता है
रोशनी बहुत है लेकिन दूर तक देखना मुश्किल

बिल्कुल अंधेरा समय इस धरती से जैसे उठता जा रहा है
और इसी के साथ गुम हुई जा रही है
काले आसमान में बिछी सितारों की झिलमिल चादर
हालांकि रोज़ खोजे जा रहे हैं नए ग्रह-उपग्रह, चांद और नक्षत्र
आकाश के किसी अदृश्य अछोर में
दो विराट आकाशगंगाओं का नृत्य इंसान की सबसे बडी दूरबीन
का सबसे दिलकश नजारा है
जिसमें झरते हैं लाखों सितारों के चूरे

लेकिन इनका एक भी कण धरती के करीब नहीं फटकता
वह इंसान और सामान से भरी एक ऐसी उदास जगह
में बदलती जा रही है
जहां बेआवाज टहलती हैं अकेली इच्छाएं
जो बहुत सारी खरीददारी के बीच, बहुत सारे रुपए खर्च कर देने के बावजूद
और बहुत सारे साधन जुटा लेने की कामयाबी पर भी
अधूरी रह जाती हैं

दिन कामनाओं और कामयाबी की एक न खत्म होने वाली सड़क पर भागते गुजरता है
शामें इस रफ़्तार में कब कुचल दी जाती हैं, पता भी नहीं चलता
और
रात को उनींदी थकी आंखें
सपनों के धूसर बिंबों के बीच आने वाले दिनों के डरों का सामना करती हैं
और घबरा कर जाग जाती हैं
कि एक और सुबह उनके सामने सवाल की तरह खड़ी है।
</poem>
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