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कुछ झूठी कविताएं-1 / प्रियदर्शन

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झूठ लिखूंगा अगर लिखूंगा कि कभी झूठ नहीं बोला
सच बोलने के लिए अब भी नहीं लिख रहा
यह समझने के लिए लिख रहा हूं
कि सच-झूठ के बीच किस तरह झूलता रहा हमारा कातर वजूद।
जीवन भर सच बोलने की शिक्षा और शपथ के बीच
कई फंसी हुई गलियां आईं जब झूठ ने ही बच निकलने का रास्ता दिया।
जब सच से आंख मिलाने का साहस नहीं हुआ तब झूठ ने ही उंगली पकड़ी और कहा, आगे चल।
यह झूठ के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन नहीं है,
बस यह समझने की कोशिश है कि आखिर क्यों जी यह झूठी ज़िंदगी
क्या रस मिलता रहा इसमें?
या जैसे 24 कैरेट सोना ठोस नहीं हो पाता,
उसमें भी दो कैरेट करनी पड़ती है मिलावट
क्या कुछ वैसा ही है ज़िंदगी का माज़रा?
जो सच के धागों से बुनी होती है
लेकिन झूठ के फंदों में फंसी होती है?
या यह एक झूठा तर्क है
अपने जिए हुए को, अपने किए हुए को सही बताने का
झूठ को सच के सामने लाने का?
</poem>
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