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|रचनाकार=भारतेंदु हरिश्चंद्र
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<poem>
हमहु सब जानति लोक की चालनि, क्यौं इतनौ बतरावति हौ।
हित जामै हमारो बनै सो करौ, सखियाँ तुम मेरी कहावती हौ॥
'हरिचंद जु' जामै न लाभ कछु, हमै बातनि क्यों बहरावति हौ।
सजनी मन हाथ हमारे नहीं, तुम कौन कों का समुझावति हौ॥
हमहु सब जानति लोक की चालनि, क्यौं इतनौ बतरावति हौ।<br>हित जामै हमारो बनै सो करौ, सखियाँ तुम मेरी कहावती हौ॥<br>'हरिचंद जु' जामै न लाभ कछु, हमै बातनि क्यों बहरावति हौ।<br>सजनी मन हाथ हमारे नहीं, तुम कौन कों का समुझावति हौ॥<br><br> ऊधो जू सूधो गहो वह मारग, ज्ञान की तेरे जहाँ गुदरी है।<br>कोऊ नहीं सिख मानिहै ह्याँ, इक श्याम की प्रीति प्रतीति खरी है॥<br>ये ब्रजबाला सबै इक सी, 'हरिचंद जु' मण्डलि ही बिगरी है।<br>एक जो होय तो ज्ञान सिखाइये, कूप ही में इहाँ भाँग परी है॥<br><br/poem>