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{{KKRachna
|रचनाकार=भारतेंदु हरिश्चंद्र
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सखी हम काह करैं कित जायं .
 बिनु देखे वह मोहिनी मूरति नैना नाहिं अघायँ . बैठत उठत सयन सोवत निस चलत फिरत सब ठौर . नैनन तें वह रूप रसीलो टरत न इक पल और. सुमिरन वही ध्यान उनको हि मुख में उनको नाम . दूजी और नाहिं गति मेरी बिनु मोहन घनश्याम . सब ब्रज बरजौ परिजन खीझौ हमरे तो अति प्रान . हरीचन्द हम मगन प्रेम-रस सूझत नाहिं न आन .</poem>
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