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गुड़हल / कुमार मुकुल

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|संग्रह=परिदृश्य के भीतर / कुमार मुकुल
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सांवले हरे पत्तों व सादे लाल फूलों के साथ
 घर-घर में विराजमान मैं गुडहुल हूं फिरंगियों के घर पैदा होता  तो डेफोडिल सा मेरा भी प्यारा नाम होता जो बचाता बलि से मुझको पर यहां निर्गंध हूं इसीलिए भक्तों का प्यारा हूं मेरे पडोसी गेंदा-गुलाब  टुक-टुक मेरा मुंह देखते रहते है ओर मैं मुट्ठी का मुट्ठी चढा दिया जाता हूं 
पाथरों पर
 
कोई जोडा मुझे बालों मे नहीं सजाता
 किसी की मेज की शोभा नहीं बढाता मैं 
कॉपी के सफों में सूखकर
 स्मृतियों में नहीं बदलतीं मेरी पुखुडियां 
हर सुबह
 
यतीमों के मुख से छीने गये दूध के साथ
 
मैं भी पत्थरों पर गिरता हूं
 
और हर शाम
 
उसी के साथ सडकर
 
बुहार दिया जाता हूं ।
 
1996
</poem>
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