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मिथक प्‍यार का / कुमार मुकुल

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|रचनाकार=कुमार मुकुल
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|संग्रह=परिदृश्य के भीतर / कुमार मुकुल
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<poem>
बेचैन सी एक लड़की जब झांकती है मेरी आंखों में
 
वहां पाती है जगत कुएं का
 
जिसकी तली में होता है जल
 
जिसमें चक्‍कर काटत हैं मछलियों रंग-बिरंगी
 
लड़की के हाथों में टुकड़े होते हैं पत्‍थर के
 
पट-पट-पट
 
उनसे अठगोटिया खेलती है लड़की
 
कि गिर पड़ता है एक पत्‍थर जगत से लुडककर पानी में
 
टप…अच्‍छी लगती है ध्‍वनि
 
टप-टप-टप वह गिराती जाती है पत्‍थर
 
उसका हाथ खाली हो जाता है
 
तो वह देखती है
 
लाल फ्राक पहने उसका चेहरा
 
त ल म ला रहा होता है तली में
 
कि
 
वह करती है कू…
 
प्रतिध्‍वनि लौटती है
 
कू -कू -कू
 
लड़की समझती है कि मैंने उसे पुकारा है
 
और हंस पड़ती है
 
झर-झर-झर
 
झर-झर-झर लौटती है प्रतिध्‍वनि
 
जैसे बारिश हो रही हो
 
शर्म से भीगती भाग जाती है लड़की
 
धम-घम-घम
 
इसी तरह सुबह होती है शाम होती है
 
आती है रात
 
आकाश उतराने लगता है मेरे भीतर
 
तारे चिन-चिन करते
 
कि कंपकंपी छूटने लगती है
 
और तरेगन डोलते रहते हैं सारी रात
 
सितारे मंढे चंदोवे सा
 
फिर आती है सुबह
 
टप-झर-धम-धम-टप-झर-झर-झर
 
कि जगत पर उतरने लगते हैं
 
निशान पावों के
 
इसी तरह बदलती हैं ऋतुएं
 
आती है बरसात
 
पानी उपर आ जाता है जगत के पास
 
थोडा झुककर ही उसे छू लिया करती है लड़की
 
थरथरा उठता है जल
 
फिर आता है जाड़ा
 
प्रतिबंधों की मार से कंपाता
 
और अंत में गर्मी
 
कि लड़की आती है जगत पर एक सुबह
 
तो जल उतर चुका होता है तली में
 
इस आखिरी बार
 
उसे छू लेना चाहती है लडकी
 
कि निचोडती है खुद को
 
और टपकते हैं आंसू
 
टप-टप
 
प्रतिध्‍वनि लौटती है टप-टप-टप
 
लड़की को लगता है कि मैं भी रो रहा हूं
 
और फफक कर भाग उठती है वह
 
भाग चलता है जल तली से।
</poem>
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