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|रचनाकार=कुमार मुकुल
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|संग्रह=परिदृश्य के भीतर / कुमार मुकुल
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<poem>
परंपरा की लीद संभाले
जो धंसे जा रहे और खुश हैं वो मूर्ख हैं
जो धंसे जा रहे और खुश हैं वो मूर्ख हैं यह मूर्खता सहन नहीं कर पा रहे जो
पागल हैं वो
मूर्खें और पागलों से अटा जो परिदृश्य है
वह इतिहास है और बुद्धिमान
मूर्खें और पागलों की टांगों के मध्य से
भाग रहे हैं भविष्य को
वह इतिहास है और बुद्धिमान मूर्खें और पागलों की टांगों के मध्य से भाग रहे हैं भविष्य को हम क्या करें कि पागल प्रिय हैं हमें और बुद्धिमानों को हम सर नवाते हैं ।
1997
</poem>