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जिनकी सुबहें नहीं भरोसे किसी सूर्य के,
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इकलौता तारा जलता पश्चि‍मी क्षि‍तिज पर
डूब अभी जाएगा क्षण में, मानस पट पर।
उग आएगा तब वह और प्रज्वलित होकर
दिप - दिप करता हुआ जलेगा, इत - उत फिरता
हुआ अंत में वो थि‍र होगा उर में मेरी
आंखें बन कर । अंतस को मेरे भर देगा
मधुर ज्वाल से और काल से , टक्कर लेगा
डटकर, रह जाएंगी उसकी आंखें फटकर ।

काल ढाल है चुके हुओं का झुके हुओं का
जो जीवन रण छोड चुके मोड चुके हैं मुख
सकाल से । पर जिनकी सुबहें नहीं भरोसे
किसी सूर्य के, कहीं किसी इकतारे की
धुंधली धुन पर, चलते - रहते हल्की सी
भीगी उजास में आस छिपाए विलम-विलम कर।

1999
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