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16:09, 30 सितम्बर 2014 {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= |अनुवादक= शमशेर बहादुर सिंह }} {{KKCatKavita}} <poem>
जहाँ में अब तो जितने रोज
अपना जीना होना है,
तुम्हारी चोटें होनी हैं -
हमारा सीना होना है।
वो जल्वे लोटते फिरते हैं
खाको-खूने-इंसाँ में :
'तुम्हारा तूर पर जाना
मगर नाबीना होना है!'
कदमरंजा है सूए-बाम
एक शोखी कयामत की
मेरे खने-हिना-परवर से
रंगीं जीना होना है!
वो कल आएँगे वादे पर
मगर कल देखिए कब हो!
गलत फिर, हजरते-दिल
आपका तख्मीना होना है।
बस ऐ शमशेर, चल कर,
अब कहीं उजलतगजीं हो जा -
कि हर शीशे को महफिल में
गदाए-मीना होना है।
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