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गोपिका अनुराग / सूरदास

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मानति नहीं लोक मरजादा, हरि कैं रंग मजी ।
सूर स्याम कौं मिलि, चूनौ-हरदी ज्यौं रंग रँजी ॥136॥॥1॥ 
कैसी लाज, कानि है कैसी, कहा कहति ह्वै ह्वै रिसहाई ?।
अब तौ सूर भजी नँद-लालहिं, की लघुता की होइ बड़ाई ॥137॥॥2॥ 
इंद्रियनि पर भूप मन है, सबनि लियौ बुलाइ ।
सूर प्रभु कौं मिले सब ये, मोहिं करि गए बाइ ॥138॥॥3॥  
अब कैसैं निरवारि जाति है, मिली दूध ज्यौं पानी ।
सूरदास प्रभु अंतरजामी, उर अंतर की जानी ॥139॥॥4॥   
स्यामसुंदर मदन मोहन, रंग-रूप सुभाइ ।
सूर स्वामी-प्रीति-कारन, सीस रहौ कि जाइ ॥140॥॥5॥  
बहुरि कबहिं यह तन धरि पैहौं, कहँ पुनि श्री बनवारि ।
सूरदास स्वामी कैं ऊपर यह तन डारौं वारि ॥141॥॥6॥  
कैसैं रह्यौ परै री सजनी,एक गाँव कै बास ।
स्याम मिलन की प्रीति सखी री, जानत सूरजदास ॥142॥॥7॥  
पर अंतर चलि जात, कलप बर बिरहा अनल जरौं ।
सूर सकुच कुल-कानि कहाँ लगि, आरज-पथहिं डरौं ॥143॥॥8॥  
का यह सूर अचिर अवनी, तनु तजि अकास पिय-भवन समैहौं ।
का यह ब्रज-बापी क्रीड़ा जल, भजि नँद-नँद सुख लैहौं ॥144॥॥9॥