सत्रहवीं सदी के अंत तक भक्ति काव्य की सरिता अविच्छिन्न बहती रही. इस सदी का अंत होते होते कदाचित अचानक कवियों की दृष्टि में एक अल्लेखनीय मोड़ आया. भक्ति की काव्यधारा क्षीण हो गई. अब कवियों की दृष्टि में रीति प्रमुख हो गई. ये कवि राज्याश्रयप्राप्त थे. अतः राजाओं की रुचियों ने इनकी काव्यचेतना को प्रभावित किया. युद्धरत राजाओं की प्रसन्नता हेतु इन्होंने नायक नायिकाओं की भावभंगिमाओं और उनके चितवन का ऐसा अनूठा चित्रा खींचा कि राजा तो राजा आमजन भी उसके भावसौंदर्य में डूबकर निहाल हो गया. इन कवियों द्वारा उकेरा गया भाव सौंदर्य अनूठा तो है ही, अद्वितीय भी है. लेकिन इसमें युगजीवन की ध्वनि का अभाव दीखता है. हाँ जहाँ रीतिबद्ध और रीतिसिद्ध कवि राग रंग में डूबे राजाओं के लिए नायिकाओं का नख शिख वर्णन कर उनका मनोरंजन कर रहे थे वहीं कुछ रीतिमुक्त कवि भी थे जो जनता की युगीन आकांक्षाओं को स्वर दे रहे थे. इसमें भूषण प्रमुख थे. इन्होनें अपनी जनता की स्वतंत्रता के लिए मुगलों से लड़ाई लड़ रहे शिवाजी और छत्रसाल की वीरता के गानों से उनकी सेनाओं के साथ जनता का भी उत्साहवर्द्धन कर रहे थे. इसके लिए वे युद्ध के मैदान में भी जाते थे. रीतिबद्ध कवियों ने काव्यगुणों में नए नए रीतिवादी प्रयोग किए. यह अलंकारों में केशव के विलक्षण प्रयोगों में देखा जा सकता है. उनके इन्हीं प्रयागों के कारण वे आमजन से कट-से गए. आधुनिक प्रयोगवादी कवियों ने भी कुछ इसी प्रकार के प्रयोग कविता के वस्तु-क्षेत्र में किया है. ये कविताएँ भी धीरे धीरे आमजन से दूर होती चली गईं हैं. अज्ञेय के चौथे सप्तक तक आते आते ये कविताएँ चंद बुद्धिजीवियों तक सीमित होकर रह गईं हैं. रीतिवादी कवियो ने अपने काव्य के लिए ब्रजभाषा का उपयोग किया और काव्यरूप में दोहा तथा पद को अपनाया. काव्यालंकारों के प्रति इनकी दृष्टि बहुत रूढ़ थी.
पùाकर पद्माकर (सन् 1753 ई - सन् 1833 ई) रीति परंपरा के अंतिम कवि थे. इन्हीं के समय में सन् 1800 ई. में हिंदी साहित्य के क्षेत्र में एक नया क्रांतिकारी मोड़ आया. अंग्रेजों ने अपने धर्म के प्रचार के लिए प्राच्य भाषाओं के महत्व को समझकर इनके विकास के लिए कोलकाता में फोर्ट विलियम कॉलेज खोला. इसमें हिंदी उर्दू के विकास के लिए हिंदोस्तानी भाषा विभाग खोला गया. सन् 1803 ई. में इसके अध्यक्ष जब प्राइस हुए तो हिंदी के लिए अलग से हिंदी विभाग खोला. तब के प्रसिद्ध हिंदी उर्दू लेखक मुंषी लल्लू लाल उसमें भाषामुंषी नियुक्त किए गए. इसी समय से तबतक प्रचलित हिंदी साहित्य की भाषा ‘भाषा’ अथवा ‘भाखा’‘हिंदी’ के नाम से जानी जाने लगी. पद्माकर के बाद जो कविताएँ लिखी गईं उनकी भाषा ब्रजभाषा ही रही किंतु गद्य की भाषा हिंदवी से नई चाल की खड़ी बोली हिंदी हो गई. इस समय जो कविताएँ लिखी गईं वे रीति परंपरा से अलग थीं. इनके बाद सन् 1857 में साहित्य के क्षेत्र में भारतेंदु के आने से हिंदी की काव्यचेतना में बुनियादी मोड़ आया. वल्कि यह कहना अधिक उचित होगा कि हिंदी साहित्य के हर विधागत क्षेत्र में चेतनागत क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ. पश्चिमी चेतना की बयार ने साहित्य के प्रति उनकी दृष्टि को नया आयाम और विस्तार दिया.
भारतेंदु का ध्यान युग की चेतना और युग की साहित्यिक आवश्यकताओं की ओर गया. उन्होंने हिंदी साहित्य में एक नए मूल्य ‘स्वाधीनता’ को स्थापित किया. हिंदी गद्य में खड़ी बोली को प्रतिष्ठित किया. कविता तो वह ब्रजभाषा में ही करते रहे पर उनमें स्वाधीनता के स्वर गूंज उठे. इनके प्रयास से कवियों को आधुनिकता की आहट मिलने लगी. भारतेंदु की कविताओं में भक्ति, रीति और आधुनिक तीनों तरह की चेतनाएँ समाविष्ट हैं.