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|रचनाकार=परवीन शाकिर
}}
[[Category:ग़ज़ल]]{{KKCatGhazal}}<poem>कमाल-ए-ज़ब्त को ख़ुद भी तो आज़माऊँगी
मैं अपने हाथ से उस की दुल्हन सजाऊँगी
सम'अतों में घने जंगलों की साँसें हैं
मैं अब कभी तेरी आवाज़ सुन न पाऊँगी
 
</poem>
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