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कमाल-ए-ज़ब्त को ख़ुद भी तो आज़माऊँगी / परवीन शाकिर
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06:45, 25 नवम्बर 2014
|रचनाकार=परवीन शाकिर
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<poem>कमाल-ए-ज़ब्त को ख़ुद भी तो आज़माऊँगी
मैं अपने हाथ से उस की दुल्हन सजाऊँगी
सम'अतों में घने जंगलों की साँसें हैं
मैं अब कभी तेरी आवाज़ सुन न पाऊँगी
</poem>
Sharda suman
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