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सुबह के हाथ अपनी शाम / किशोर काबरा
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10:19, 4 दिसम्बर 2014
कुछ चिता से लकड़ियाँ मैं खींच लूँगा।
ज़िंदगी में मिल न पाई दो गज़ी भी,
आज कुछ लज्जा-वसन से तन
ढँकूँगा।
ढकूँगा।
तुम ज़रा-सा वक्त का शीशा दिखाना,
हडि्डयों को कुछ सुनहरा नाम दे दूँ।
Sharda suman
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