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यह मन-अनत-अनत ही भटकै / स्वामी सनातनदेव
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15:09, 9 जनवरी 2015
<poem>
राग जोगकोश, तीन ताल 22.7.1974
यह मन अनत<ref>अन्यत्र, दूसरी जगह</ref> अनत हो भटकै।
जहाँ नाहिं कछु लैनो-देनो तहूँ आय क्यों लटकै॥
जो तुम्हरी ह्वै जाय, न फिर यह जाय कतहुँ फिरि-फिरि कै॥4॥
</poem>
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Sharda suman
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