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बिहारी के दोहे

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'''सतसइया के दोहरा ज्यों नावक के तीर।
'''देखन में छोटे लगैं घाव करैं गम्भीर।।'''
(नावक = नाविक, दोहरा = दोहा)
बिहारी शाहजहाँ के समकालीन थे और राजा जयसिंह के राजकवि थे। राजा जयसिंह अपने विवाह के बाद अपनी नव-वधू के प्रेम में राज्य की तरफ बिलकुल ध्यान नहीं दे रहे थे तब बिहारी ने उन्हें यह दोहा सुनाया थाः
'''नहिं पराग नहिं मधुर मधु नहिं विकास यहि काल।'''
'''अली कली में ही बिन्ध्यो आगे कौन हवाल।।'''
(श्लेष अलंकारः अली = राजा, भौंरा; कली = रानी, पुष्प की कली)
कहते हैं कि बात राजा की समझ में आ गई और उन्होंने फिर से राज्य पर ध्यान देना शुरू कर दिया। जयसिंह शाहजहाँ के अधीन राजा थे। एक बार शाहजहाँ ने बलख पर हमला किया जो सफल नही रहा और शाही सेना को वहाँ से निकालना मुश्किल हो गया। कहते हैं कि जयसिंह ने अपनी चतुराई से सेना को वहाँ से कुशलपूर्वक निकाला। बिहारी ने लिखा हैः
'''घर घर तुरकिनि हिन्दुनी देतिं असीस सराहि।'''
'''पतिनु राति चादर चुरी तैं राखो जयसाहि।।'''
( चुरी = चूड़ी, राति = रक्षा करके, जयसाहि = राजा जयसिंह)
बिहारी और अन्य रीतिकालीन कवियों ने भक्ति की कवितायें लिखी हैं किन्तु वे भक्ति से कम काव्य की चातुरी से अधिक प्रेरित हैं। किसी रीतिकालीन कवि ने लिखा हैः आगे के सुकवि रीझिहैं चतुराई देखि, राधिका कन्हाई सुमिरन को तो इक बहानो है। बिहारी का एक दोहा हैः
'''मोर मुकुट कटि काछनी कर मुरली उर माल।'''
'''यहि बानिक मो मन बसौ सदा बिहारीलाल।।'''
(काछनी = धोती की काँछ, यहि बानिक = इसी तरह)
सतसई का प्रथम दोहा हैः
'''मेरी भववाधा हरौ, राधा नागरि सोय।'''
'''जा तन की झाँई परे स्याम हरित दुति होय।।'''
(झाँई = छाया, स्याम = श्याम, दुति = द्युति = प्रकाश)
बिहारी का एक बड़ा प्रसिद्ध दोहा है:
'''चिरजीवौ जोरी जुरै, क्यों न स्नेह गम्भीर।'''
'''को घटि ये वृषभानुजा, वे हलधर के बीर॥'''
अर्थात: यह जोड़ी चिरजीवी हो। इनमें क्यों न गहरा प्रेम हो, एक वृषभानु की पुत्री हैं, दूसरे बलराम के भाई हैं। दूसरा अर्थ है: एक वृषभ (बैल) की अनुजा (बहन) हैं और दूसरे हलधर (बैल) के भाई हैं। यहाँ श्लेष अलंकार है।
बिहारी शहर के कवि हैं। ग्रामीणों की अरसिकता की हँसी उड़ाते हैं। जब गंधी (इत्र बेचने वाला) गाँव में इत्र बेचने जाता है तो सुनिये क्या होता हैः
'''करि फुलेल को आचमन मीठो कहत सराहि।'''
'''रे गंधी मतिमंद तू इतर दिखावत काँहि।।'''
(फुलेल = इत्र, सराहि = सराहना करके, इतर = इत्र, काँहि = किसको)
'''कर लै सूँघि, सराहि कै सबै रहे धरि मौन।'''
'''गंधी गंध गुलाब को गँवई गाहक कौन।।'''
(गँवई = छोटा गाँव, गाहक = ग्राहक)
इसी तरह जब गाँव में गुलाब खिलता है तो क्या होता हैः
'''वे न इहाँ नागर भले जिन आदर तौं आब।'''
'''फूल्यो अनफूल्यो भलो गँवई गाँव गुलाब।।'''
(नागर = नागरिक, आब = इज्जत)
नायिका के वर्णन में बिहारी कभी कभी अतिशयोक्ति का उपयोग करते हैं:
'''काजर दै नहिं ऐ री सुहागिन, आँगुरि तो री कटैगी गँड़ासा'''
और सुनियेः
'''सुनी पथिक मुँह माह निसि लुवैं चलैं वहि ग्राम।'''
'''बिनु पूँछे, बिनु ही कहे, जरति बिचारी बाम।।'''
यानी कि विरहिणी नायिका की श्वास से माघ के महीने में भी उस गाँव में लू चलती है। विरहिणी क्या हुई, लोहार की धौंकनी हो गई!
विरहिणी अपनी सखी से कहती हैः
'''मैं ही बौरी विरह बस, कै बौरो सब गाँव।'''
'''कहा जानि ये कहत हैं, ससिहिं सीतकर नाँव।।'''
यानी कि मैं ही पागल हूँ या सारा गाँव पागल है। ये कैसे कहते हैं कि चन्द्रमा का नाम शीतकर (शीतल करने वाला) है? तुलना करिये तुलसीदास जी की चौपाई से। अशोकवन में सीता जी कहती हैं: पावकमय ससि स्रवत न आगी। मानुँहि मोहि जानि बिरहागी। अर्थात्: मुझको विरहिणी जानकर अग्निमय चन्द्रमा भी अग्नि की वर्षा नहीं करता।
कुछ दोहे नीति पर भी हैं, जैसेः
'''कोटि जतन कोऊ करै, परै न प्रकृतिहिं बीच।'''
'''नल बल जल ऊँचो चढ़ै, तऊ नीच को नीच।।'''
अर्थात् कोई कितना भी प्रयत्न करे किन्तु मनुष्य के स्वभाव में अन्तर नहीं पड़ता। नल के बल से पानी ऊपर तो चढ़ जाता है किन्तु फिर भी अपने स्वभाव के अनुसार नीचे ही बहता है।
इस लेख को बिहारी के दो दोहों के साथ समाप्त करता हूँ जिनमें वे भगवान को उलाहना दे रहे हैं:
'''नीकी लागि अनाकनी, फीकी परी गोहारि,'''
'''तज्यो मनो तारन बिरद, बारक बारनि तारि।'''
अर्थात् : हे भगवान लगता है आब आपको आनाकानी अच्छी लगने लगी है और हमारी पुकार फीकी हो गई है। लगता है कि एक बार हाथी को तार कर तारने का यश छोड़ ही दिया है।
'''कब को टेरत दीन ह्वै, होत न स्याम सहाय।'''
'''तुम हूँ लागी जगत गुरु, जगनायक जग बाय।।'''
अर्थात्: हे श्याम, मैं कब से दीन होकर तुम्हें पुकार रहा हूँ किन्तु आप मेरी सहायता नहीं कर रहे हैं। हे जग-गुरु, जगनायक क्या आपको भी इस संसार की हवा लग गई है?