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बिहारी के दोहे

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मैं समुझ्यो निराधार, यह जग काचो काँच सो।<br>
एकै रूप अपार, प्रतिबिम्बित लखिए तहाँ॥<br><br>
 
 
इत आवति चलि जाति उत, चली छसातक हाथ।
 
चढ़ी हिडोरैं सी रहै, लगी उसाँसनु साथ।।
बैसहु के भरमै यह भाँति, परे बर हीन खरे दुबरे अँग,
 
पैंड छसात हिंडोरै सै बैठी, जु आवत जात उसासनि कै संग।।
 
 
भूषन भार सँभारिहै, क्यौं इहि तन सुकुमार।
 
सूधे पाइ न धर परैं, सोभा ही कैं भार।।
 
 
 
सकिहै सँभारि कैसैं अभरन भार यापैं
 
आभा हूँ कै भार न सँभार्यौ तन जात है।।
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