चाबुक खाये {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=अज्ञेय|संग्रह=कितनी नावों में कितनी बार / अज्ञेय}} {{KKCatKavita}}<poem>चाबुक खाए
भागा जाता
सागर-तीरे
मुँह लटकायेलटकाए
मानो धरे लकीर
जमे खारे झागों की--की—
रिरियाता कुत्ता यह
पूँछ लड़खड़ाती टाँगों टांगों के बीच दबाये । दबाए।
कटा हुआ
जाने-पहचाने सब कुछ से
इस सूखी तपती रेती के विस्तार से,
और अजाने-अनपहचाने सब से
दुर्गम, निर्मम, अन्तहीन
उस ठण्डे पारावार से !</poem>