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Kavita Kosh से
जरूरी नहीं
जो पढ़ा है तुमने
पढ़ा सकोगे
जिनके घर
बने हुए शीशे के
लगाते पर्दे
तेरी-मेरी है
बस एक कहानी
राजा न रानी
प्रभु के लिए
छप्पन भोग बने
खाये पुजारी
बड़े दिनों से
मन है मिलने का
समय नहीं
उल्लू के पठ्ठे
उल्लू नहीं होंगे तो
भला क्या होंगे
कहने को तो
सफर है सुहाना
थकते जाना
कितने कवि
कविता लिखने से
हुए पागल
पड़ी लकड़ी
जब भी है उठायी
आफ़त आयी
आदेश हुआ
महिला हो मुखिया
कागज़ पर