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भक्तियोग / जयशंकर प्रसाद

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कुल्या उसी गिरि-प्रान्त में बहती रही कल-नाद से
छोटी लहरियाँ उठ री रही थी आन्तरिक आल्हाद आहृलाद से
पर शान्त था वह शैल जैसे योग-मग्न विरक्त हो
है चन्द्रमा-सा दीखता आसन विमल-विधु-कान्त है
स्थिर दृष्टि है जल-विन्दु-पुरित भले थे खिल रहेपूरित भाव—मानस का भराकुछ पवन के वश उन अश्रुकण में हुए आनन्द एक भी उनमें न इस भव से थे खिल रहेडरा
वह स्वच्छ शरद-ललाट चिन्तित-सा दिखाई दे रहा
इस विष्व के आलोक-मणि की खोज में उद्वेग से
प्रति श्वास श्‍वास आवाहन किया करता रहा उस इष्ट को
जो स्पर्श कर लेता कमी था पुण्य प्रेम अभीष्ट को
जिस नेत्र में हों वे नहीं समझो की वे ही निःस्व है
उस प्रेममय सर्वेष सर्वेश का सारा जगत् औ’ जाति है
संसार ही है मित्र मेरा, नाम को न अराति है
केवल उसी की है कृपा आनन्द और न कुछ कहीं
हमको रूलाता है कभी, हाँ, फिर हँसता हँसाता है कभी
जो मौज में आता जभी उसके, अहो करता तभी
वह प्रेम का पागल बड़ा आनन्द देता है हमें
हम रूठते उससे कभी, फिर भी मानता मनाता है हमें
हम प्रेम-मतवाले बने, अब कौन मतवाले बनेबनें
मत-धर्म सबको ही बहाया प्रेमनिधि-जल में घने
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