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रंगराग / प्रवीण काश्‍यप

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<poem>
हमर जीवनक दू सत्य
हमर तड़प आ
स्त्री छातीक धकधक।
हमर दू विकल्प
तनाव आ
मांसलताक लेल अकुलाहटि!

ठमकि कऽ
मैल भऽ जाइत अछि
पहिचान।
रंगीन बिंन सभक बीच
घेरायल अछि
हमर श्वेत-श्याम सत्य!

हमर जीवनक दू सत्य
स्त्री आ हम!
हमर दू सत्य
हमर पुरूषार्थ आ
हमर पुंसत्वक स्थापनक केन्द्र!
एक स्थान जतऽ
सिमटि कऽ स्थिर भऽ जाइत अछि

हमर पुरूषतत्व!
हमर शरीरक द्रव्यकेन्द्र।
हृदयक बढ़ैत गति
आँखिक ज्वाला,
मस्तिष्कक नसक कंपनक
बढ़ैत आवृति
मुदा, भुजा मे ओ बल नहि
जे निचोड़ि कऽ निकालि सकै’
स्त्री सँ सुगंध।

जेना निकोटिनक निसाँ
एकदम चढ़ि चुकल हो!
पिंड प्राणहीन सन भऽ जाइत अछि
मुँह सँ निःसृति होइत अछि
मात्र लेर!
भुखायल नढ़िया जकाँ
शिकार कें देखि कऽ
ओकर गंधक अनुभूति सँ
निकलैत अछि कल्ला सँ लेर!

मुदा ई पशुत्व मे
क्रिया नहि अछि, वेग नहि अछि
प्रवाह नहि अछि।
मात्र शून्यता अछि
शून्यता।
एक शांति अछि, प्रेमक भावना अछि
आ एहि में फँसल अछि
हमा पुरूषक आ हमर पियास!

देव सँ पशु आ फेर
देव भऽ जेबाक अस्तव्यस्तता!
आ एहि औनाहटिक क्रम में
निकसैत घाम, खून सँ
सुखाइत ठोंठक पियास!
प्रेमक पियास
देहक पियास
आ हमर बँचल-खुचल
मानवक पियास!
</poem>
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