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|रचनाकार=प्रतिभा सक्सेना
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|संग्रह=
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*
{क्षीण होती शिप्रा और सतत प्रवाहिनी नर्मदा के, मनुज
के भागीरथी प्रयत्नों द्वारा प्रायोजित, संगम से उत्प्रेरित-}
*
आज शीतल हो गए मन-प्राण,
सुख का ज्वार उमड़ा,
मेखला कटि की विखंडित अब न होगी .
मालवा की भूमि यों दंडित न होगी,
और उत्तरगामिनी शिप्रा पुनीता,
अब किसी उत्ताप से कुंठित न होगी .
*
अब न सूखेगा कभी
कितनी तपन हो,
तुष्टि से परिपूर्ण
रुक्ष- विदीर्ण अंतर.
तटों का वैभव न अब श्री-हीन होगा
आस्थाएँ जी गईँ विश्वास से भर .
जुड़ीं क्षिति की टूटती जीवन-लकीरें,
राग शिप्रा और रेवा के मिले
जल ने तरल रँग से
लिखे नूतन स्वराक्षर.
*
हो गई थी मनुज के अतिचार की अति,
असीमित तृष्णा, विषम व्यवहार की गति,
प्रकृति पर निस्सीम अत्याचार, दुर्मति,
पाप, बन कर शाप सिर पर आ पड़ा,
तब बौखलाया मनुज,
विपदा-ग्रस्त बेबस .
उमड़ता परिताप- पश्चाताप से भर,
दिग्भ्रमित साधन न कोई, आश कोई,
विपद् में अनयास माँ ही याद आई .
*
विषम अंतर्दाह भर कातर हुआ स्वर-
'शमित कर दो पाप,
यह क्षिति-तल सँवारो,
नर्मदे, इस तट पधारो,
शाप के प्रतिकार हित माँ,
चेत-हत शिप्रा गँभीरा को उबारो,
आदिकल्पों से धरा को पोसती
हे मकर वाहिनि,
मुमूर्षित यह भू उबारो
अमृत-पय धारिणि, पधारो!'
*
चल पड़ा क्रम साधना का
एक ही रट ले कि माँ अनुकूल होओ .
जन-मनोरथ जुट गया अविराम
करता अगम तप, मन-कर्म-वच रत,
'माँ ढलो, इस दिशि चरण धर
त्रस्त जीवन को सँवारो,
शाप से उद्धार हित,
सोमोद्भवे रेवा पधारो,
माँ, उबारो!'
*
आशुतोषी नर्मदा की धन्य धारा
झलझलाया नीर,
करुण पुकार सुन विगलित मना,
उन्मुख हुईँ,
माँ नर्मदा ले उमड़ता उर
वेग भर बाहें पसारे,
चल पड़ीं दुर्गम पथों को पार करती,
आ गई संजीवनी बन .
*
क्षीण शिप्रा, उमग आई चेत भर
भुज भर मिलीं आकंठ
आलिंगन सुदृढ़ अविछिन्न!
नेह! जल में जल सजलतर हो समाया,
कण, कणों में घुले,
अणु में अणु गये ढल,
मिलन के कुछ सुनहरे पल,
लिख गये स्वर्णाक्षरों में
मनुज की भागीरथी
श्रम-साधना के पृष्ठ उज्ज्वल!
*
पुण्य संगम,
तीर्थ की महिमा महत्तम.
निरखते अनिमेष
युग-युग से पिपासित नयन,
दुर्लभ तृप्ति, परमाश्वस्ति
मैं साक्षी
यही सौभाग्य क्या कम!
सिक्त प्राणों में अनोखी स्वस्ति.
हो कृतकृत्य अंतर
शान्त, स्निग्ध, प्रसन्न!
*
अमल-शीतल परस,
यह नेहार्द्र धरती,
सरस्वति के हास से धवलित दिशाएँ,
रजत के शत-शत चँदोबे
तानती निर्मल निशाएँ,
सतत दिव्यानुभूति भरती
ओर-छोर अपार सुख-सुषमा प्रवाहित.
*
हरित वन में उठ रही हो
टेसुओं की दहक,
नयन-काजल पुँछे
माँ के श्याम आँचल की महक .
इस प्राण-वीणा में बजे अविराम
जन्मान्तर-जनम तक
जल-तरंगित, रम्य शिप्रा के क्वणन.
अहर्निश, अनयास, अव्यय
अनाहत, अविछिन्न
अनहद-नाद की सरगम!
*
</poem>
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{क्षीण होती शिप्रा और सतत प्रवाहिनी नर्मदा के, मनुज
के भागीरथी प्रयत्नों द्वारा प्रायोजित, संगम से उत्प्रेरित-}
*
आज शीतल हो गए मन-प्राण,
सुख का ज्वार उमड़ा,
मेखला कटि की विखंडित अब न होगी .
मालवा की भूमि यों दंडित न होगी,
और उत्तरगामिनी शिप्रा पुनीता,
अब किसी उत्ताप से कुंठित न होगी .
*
अब न सूखेगा कभी
कितनी तपन हो,
तुष्टि से परिपूर्ण
रुक्ष- विदीर्ण अंतर.
तटों का वैभव न अब श्री-हीन होगा
आस्थाएँ जी गईँ विश्वास से भर .
जुड़ीं क्षिति की टूटती जीवन-लकीरें,
राग शिप्रा और रेवा के मिले
जल ने तरल रँग से
लिखे नूतन स्वराक्षर.
*
हो गई थी मनुज के अतिचार की अति,
असीमित तृष्णा, विषम व्यवहार की गति,
प्रकृति पर निस्सीम अत्याचार, दुर्मति,
पाप, बन कर शाप सिर पर आ पड़ा,
तब बौखलाया मनुज,
विपदा-ग्रस्त बेबस .
उमड़ता परिताप- पश्चाताप से भर,
दिग्भ्रमित साधन न कोई, आश कोई,
विपद् में अनयास माँ ही याद आई .
*
विषम अंतर्दाह भर कातर हुआ स्वर-
'शमित कर दो पाप,
यह क्षिति-तल सँवारो,
नर्मदे, इस तट पधारो,
शाप के प्रतिकार हित माँ,
चेत-हत शिप्रा गँभीरा को उबारो,
आदिकल्पों से धरा को पोसती
हे मकर वाहिनि,
मुमूर्षित यह भू उबारो
अमृत-पय धारिणि, पधारो!'
*
चल पड़ा क्रम साधना का
एक ही रट ले कि माँ अनुकूल होओ .
जन-मनोरथ जुट गया अविराम
करता अगम तप, मन-कर्म-वच रत,
'माँ ढलो, इस दिशि चरण धर
त्रस्त जीवन को सँवारो,
शाप से उद्धार हित,
सोमोद्भवे रेवा पधारो,
माँ, उबारो!'
*
आशुतोषी नर्मदा की धन्य धारा
झलझलाया नीर,
करुण पुकार सुन विगलित मना,
उन्मुख हुईँ,
माँ नर्मदा ले उमड़ता उर
वेग भर बाहें पसारे,
चल पड़ीं दुर्गम पथों को पार करती,
आ गई संजीवनी बन .
*
क्षीण शिप्रा, उमग आई चेत भर
भुज भर मिलीं आकंठ
आलिंगन सुदृढ़ अविछिन्न!
नेह! जल में जल सजलतर हो समाया,
कण, कणों में घुले,
अणु में अणु गये ढल,
मिलन के कुछ सुनहरे पल,
लिख गये स्वर्णाक्षरों में
मनुज की भागीरथी
श्रम-साधना के पृष्ठ उज्ज्वल!
*
पुण्य संगम,
तीर्थ की महिमा महत्तम.
निरखते अनिमेष
युग-युग से पिपासित नयन,
दुर्लभ तृप्ति, परमाश्वस्ति
मैं साक्षी
यही सौभाग्य क्या कम!
सिक्त प्राणों में अनोखी स्वस्ति.
हो कृतकृत्य अंतर
शान्त, स्निग्ध, प्रसन्न!
*
अमल-शीतल परस,
यह नेहार्द्र धरती,
सरस्वति के हास से धवलित दिशाएँ,
रजत के शत-शत चँदोबे
तानती निर्मल निशाएँ,
सतत दिव्यानुभूति भरती
ओर-छोर अपार सुख-सुषमा प्रवाहित.
*
हरित वन में उठ रही हो
टेसुओं की दहक,
नयन-काजल पुँछे
माँ के श्याम आँचल की महक .
इस प्राण-वीणा में बजे अविराम
जन्मान्तर-जनम तक
जल-तरंगित, रम्य शिप्रा के क्वणन.
अहर्निश, अनयास, अव्यय
अनाहत, अविछिन्न
अनहद-नाद की सरगम!
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