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ब्रेक-अप-7 / बाबुषा कोहली

1 byte removed, 08:16, 7 अप्रैल 2015
भीड़ भरी सड़क पर बड़े दीवानेपन से एक दिन उसने मेरा नाम पुकारा । मैं भागती हुई उसके पास तक गई और उस पर बेतहाशा चिल्लाने लगी। "तुम एकदम पागल हो क्या ? ऐसे मेरा नाम चिल्लाने का मतलब ? सब क्या सोचेंगे ?" उसने मुझे अपने सीने में भींच लिया । "दुनियादारी की बड़ी फिकर तुम्हें ?"
दुनियादारी !
उस के सीने से हटी और उल्टे पाँव से दुनिया को जो 'किक' मारी तो दुनिया सीधे गोल-पोस्ट के बाहर । बाहर। उसका नाम उठाया मैंने हाथों में, उस पर जमी धूल झाड़ी और सजाया । उसे अपनी दुनिया का अर्थ बताया । मुझ पर लाड़ जताते हुए उसने मेरी दुनिया में क़दम रखा और प्रतिज्ञा की कि इस जन्म तो क्या किसी जन्म में भी इस दुनिया से बाहर नहीं हो सकता । मेरी दुनिया उसके नाम से जगमगाने लगी । मगर उस दिन जब तेज़ बुखार की हालत में मैं उसका नाम बुदबुदा रही थी बहुत धीमे -धीमे, उसके घर की खिड़कियों के शीशे चटक गए । उसने चीख़ कर कहा " तुम पागल हो गई हो क्या ? इस तरह मेरा नाम लेने का मतलब ? घर की खिड़कियाँ !"
घर ? दिल क्या टूटता, साहब ? इतने दिनों बाद उल्टे पाँव की हड्डी टूट गई ।
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