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कुछ क्षणिकाएँ / किरण मिश्रा

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आज इस शहर में हर ग़रीब
मोहब्बत में हारा नज़र आया ।
 
'''5.'''
 
बाँसुरी के धुन की तरह
हौले-हौले तुम मुझ में समा गए
मुझे लगा जैसे सहरा में एक टुकड़ा मिला हो छाँव का
तुमने एक मीठा-सा सवाल किया
तो नन्हा-सा जवाब बन महक गया मन ।
 
'''6.'''
वो आज भी मेरे ज़ेहन में है
एक किताब की तरह
कि हर बार पलटती हूँ उसके पन्ने
खींचती हूँ लाईन अपनी पसन्द के पैराग्राफ़ पर
पर उसमे कुछ नया नहीं जोड़ पाती ।
 
 
'''7.'''
जब किसी रस्ते पर चलते-चलते
तुम थक जाओ
और किसी राह पर रुक जाओ
तो देख लेना कोई वहाँ तो नहीं
यक़ीनन वो तेरा साया ही होगा ।
</poem>
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