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[[Category:संस्कृत]]
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प्रिये ! आया ग्रीष्म खरतर !
 
सूर्य भीषण हो गया अब,चन्द्रमा स्पृहणीय सुन्दर
 
कर दिये हैं रिक्त सारे वारिसंचय स्नान कर-कर
 
रम्य सुखकर सांध्यवेला शांति देती मनोहर ।
 
शान्त मन्मथ का हुआ वेग अपने आप बुझकर
 
दीर्घ तप्त निदाघ देखो, छा गया कैसा अवनि पर
 
प्रिये ! आया ग्रीष्म खरतर !
सविभ्रमसस्मित नयन बंकिम मनोहर जब चलातीं
प्रिय कटाक्षों से विलासिनी रूप प्रतिमा गढ़ जगातीं
प्रवासी उर में मदन का नवल संदीपन जगा कर
रात शशि के चारु भूषण से हृदय जैसे भूला कर
सविभ्रमसस्मित नयन बंकिम मनोहर जब चलातीं<br>प्रिय कटाक्षों से विलासिनी रूप प्रतिमा गढ़ जगातीं<br>प्रवासी उर में मदन का नवल संदीपन जगा कर<br>रात शशि के चारु भूषण से हृदय जैसे भूला कर<br><br>प्रिये आया ग्रीष्म खरतर!
प्रिये आया ग्रीष्म खरतर!<br><br>तीव्र जलती है तृषा अब भीम विक्रम और उद्यमभूल अपना, श्वास लेता बार बार विश्राम शमदमखोल मुख निज जीभ लटका अग्रकेसरचलित केशरिपास के गज भी न उठ कर मारता है अब मृगेश्वर
तीव्र जलती है तृषा अब भीम विक्रम और उद्यम<br>भूल अपना, श्वास लेता बार बार विश्राम शमदम<br>खोल मुख निज जीभ लटका अग्रकेसरचलित केशरि<br>पास के गज भी न उठ कर मारता है अब मृगेश्वर<br><br>प्रिये आया ग्रीष्म खरतर!
प्रिये आया ग्रीष्म खरतर!<br><br>किरण दग्ध, विशुष्क अपने कण्ठ से अब शीत सीकरग्रहण करने, तीव्र वर्धित तृषा पीड़ित आर्त्त कातरवे जलार्थी दीर्घगज भी केसरी का त्याग कर डरघूमते हैं पास उसके, अग्नि सी बरसी हहर कर
किरण दग्ध, विशुष्क अपने कण्ठ से अब शीत सीकर<br>ग्रहण करने, तीव्र वर्धित तृषा पीड़ित आर्त्त कातर<br>वे जलार्थी दीर्घगज भी केसरी का त्याग कर डर<br>घूमते हैं पास उसके, अग्नि सी बरसी हहर कर<br><br>प्रिये आया ग्रीष्म खरतर!
प्रिये आया ग्रीष्म खरतर!<br><br>क्लांत तन मन रे कलापी तीक्ष्ण ज्वाला मे झुलसताबर्ह में धरशीश बैठे सर्प से कुछ न कहता, भद्रमोथा सहित कर्म शुष्क-सर को दीर्घ अपनेपोतृमण्डल से खनन कर भूमि के भीतर दुबकनेवराहों के यूथ रत हैं, सूर्य्य-ज्वाला में सुलग कर
क्लांत तन मन रे कलापी तीक्ष्ण ज्वाला मे झुलसता<br>बर्ह में धरशीश बैठे सर्प से कुछ न कहता, <br>भद्रमोथा सहित कर्म शुष्क-सर को दीर्घ अपने<br>पोतृमण्डल से खनन कर भूमि के भीतर दुबकने<br>वराहों के यूथ रत हैं, सूर्य्य-ज्वाला में सुलग कर<br><br>प्रिये आया ग्रीष्म खरतर!
प्रिये आया ग्रीष्म खरतर!<br><br>दग्ध भोगी तृषित बैठे छत्रसे फैला विकल फननिकल सर से कील भीगे भेक फनतल स्थित अयमन,निकाले सम्पूर्ण जाल मृणाल करके मीन व्याकुल,भीत द्रुत सारस हुए, गज परस्पर घर्षण करें चल,एक हलचल ने किया पंकिल सकल सर हो तृषातुर,
दग्ध भोगी तृषित बैठे छत्रसे फैला विकल फन<br>निकल सर से कील भीगे भेक फनतल स्थित अयमन,<br>निकाले सम्पूर्ण जाल मृणाल करके मीन व्याकुल,<br>भीत द्रुत सारस हुए, गज परस्पर घर्षण करें चल,<br>एक हलचल ने किया पंकिल सकल सर हो तृषातुर,<br><br>प्रिये आया ग्रीष्म खरतर!
प्रिये आया ग्रीष्म खरतर! <br><br>रवि प्रभा से लुप्त शिर- मणि- प्रभा जिसकी फणिधरलोल जिहव, अधिर मारुत पीरहा, आलीढ़सूर्य्य ताप तपा हुआ विष अग्नि झुलसा आर्त्त कातरत॓षाकुल मण्डूक कुल को मारता है अब न विषधर
रवि प्रभा से लुप्त शिर- मणि- प्रभा जिसकी फणिधर<br>लोल जिहव, अधिर मारुत पीरहा, आलीढ़<br>सूर्य्य ताप तपा हुआ विष अग्नि झुलसा आर्त्त कातर<br>त॓षाकुल मण्डूक कुल को मारता है अब न विषधर<br><br> प्रिये आया ग्रीष्म खरतर!<br><br>
प्यास से आकुल फुलाये वक्त्र नथुने उठा कर मुख<br>रक्त जिह्व सफेन चंचल गिरि गुहा से निकल उन्मुख<br>ढ़ूंढने जल चल पड़ा महिषीसमूह अधिर होकर<br>धूलि उड़ती है खुरों के घात से रूँद ऊष्ण सत्वर<br><br>
प्रिये आया ग्रीष्म खरतर!
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