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अफ़सोस हाय! हैरत, किस पाप का नतीजा,
सबसे हमी हैं निर्धन, धन के उगलने वाले।
सर पर हैं कर बहुत-से, कर मंे न एक धेला,घर पर नहीं है छप्पर, वस्तर उधड़ने वाले। जुल्मो-सितम के मारे, दम नाक में हमारा,भगवान तक हुए हैं, पर के कतरने वाले। फुरसत नहीं है मिलती, इक साल काल से हैदाने बिना तरसते, नेमत परोसने वाले। ऐ मौज करने वालो, कर देंगे हश्र बरपा,उभरे ‘चकोर’ जब भी, हम आह भरने वाले! रचनाकाल: सन 19221930
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