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दृश्य : एक / कुमार रवींद्र

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जैसे हो कोई ठेका देता तबले पर<br>
या मन में पलते असन्तोष-चिन्ताओं-सा।<br>
जंगल का अपना प्रान्त छोड़ <br>
ये कहाँ जा रहे पाँव;<br>
कौन-सी राह, <br>
उनके आश्रम पर <br>
ध्वजा गेरुआ फहराती;<br>
उसके आगे ही....<br>
राजमहल के कंगूरे...<br><br>
[इसके पहले कि वह वाचाल युवक और आगे बोले, एकलव्य नदी-तट की ओर तेजी से भाग पड़ता है। तट पर पहुँचते ही नदी में कूद पड़ता है। सब चकित उसे देखते रह जाते हैं।]