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|संग्रह=चांद का मुँह टेढ़ा है / गजानन माधव मुक्तिबोध
}}
 
''(मोटे अक्षरों में लिखे शब्द अधूरे या ग़लत हैं, आप के पास छपाई में यह कविता पड़ी हो तो ये शब्द ठीक
''कर दें, और इस कोष्ठक को मिटा दें।)''
 
 
 
 
 
आँखों के सामने, दूर...<br>
डर जाते हैं।<br>
(प्रतिदिन के वास्तविक जीवन की चट्टानों से<br>
जूझकर पर्यवसित प्राणों का उल्लास हुलास है)<br>
मात्र अस्तित्व ही की रक्षा में व्यतीत हुए दिन की<br>
कि फलहीन दिवस की निरर्थकता की ठसक को देखकर<br>
श्र्द्धा श्रद्धा भी भर्त्सना की मार सह लेती है,<br>
झुकाती है लज्जा से देवोपम ग्रीव निज,<br>
ग्लानि से निष्ठा का जी धँस जाता है।<br>
ढँका हुआ कुहरे से...<br>
दीखता पहाड़<br>
स्याह--!<br><br>
आज के अभाव के व कल के उपवास के<br>
स्याह!<br><br>
अपने मस्तिष्क के पीछे अकेले में<br>
गहरे अकेले में<br>
न-कह-सके-जाने-वाले अनुभवों के ढेर का<br>
भयंकर विशालाकार प्रतिरूप<br>
दीखता पहाड़...<br>
स्याह !<br>
दूसरी ओर<br>
क्षुद्रतम सफलता की आड़ से<br>
(नहीं है जो) निज की सुयोग्यता का लाड़ करता हूआहुआ<br>
पानी हुई चमक से चमककर<br>
चांद का अधूरा मुँह<br>
--पहाड़ के देह पर<br>
ज़िन्दगी के भयंकर स्वप्नों के मेह<br>
रहे रहते तैरते, मसानी आसमान में।<br><br>
रास्ते पर चलता हूँ कि पैरों के नीचे से<br>
सिनेमा के, दुकानों के, रोगों के प्रभीमतर<br>
चमकते हुए, शानदार।<br>
चलता हूँ कि देखता हूँ नगर का मुसकराता व्यक्तित्व '''?हाकार'''महाकार,<br>दमकती रौनक रौनक़ का उल्लास,<br>
चहचहाती सड़कों की साड़ियाँ।<br>
लगता है--<br>
नग्न अति बर्बर देह<br>
सूखा हुआ रोगीला पंजर मुझे दीखता है<br>
एक्स-रे के की फोटो में रोग-जीर्ण<br>
रहस्मयी अस्थियों के चित्र-सा विचित्र और<br>
भयानक।<br>
सियाह चक्रव्यूहों में<br>
फँसे हुए प्राण सब मुझे याद आते हैं,<br>
मर्माहत कातर पुकरा पुकार सुन पड़ती है<br>
मेरी ही पुकार जैसी चिन्तातुर समुद्विग्न।<br>
अंधेरे में चुपचाप<br>
घर के काम बाहर के काम सब करती है,<br>
अपनी सारी थकान के बावजूद।<br>
मजदूरी मज़दूरी करती है<br>
घर कि गिरस्ती के लिए ही<br>
पुत्रों के भविष्य के लिए सब।<br>
उसके पीले अवसाद-भरे कृश मुख पर<br>
जाने किस (धोखे-भरी?) आशा की दृढ़ता है।<br>
करती है वह इतना काम<br>
क्यों किस आशा पर?<br>
प्रश्न पूछता हूँ मैं;<br>
जो आते भयानक<br>
वेदनार्थ भार हैं<br>
उसके ही लिए तो यह--<br>
कष्टजीवि प्राणों की अपार श्रमशीलता।<br>
विशाल श्रमलता की जीवन्त<br>
में से उठ-उठकर<br>
करुणा में मिली हुई गीली हुई गूंजे कुछ<br>
मुझे दिला देती है हैं नई ही बिरादरी,<br>
हिये की धारित्री की<br>
बड़ी अजीब (आँसूओं-सी नमकीन)<br>
मेरे हिये में समाती है,<br>
दिल भर उठता है<br>
ओस-गीली झुलसी हुई '''चमेली''' की आहों से।<br><br>
दूर-दूर मुफ़लिसी के टूटे-फूटे घरों में<br>
वे दाढ़ी-धारी देहाती मुसलमान चाचा और<br>
बोझा उठाए हुए<br>
माँएँमाएँ, बहनें, बेटियाँ......<br>
सबको ही सलाम करने की इच्छा होती है,<br>
सबको ही राम-राम करने को चाहता है जी<br>
सभी ही का गीला-गीला मीठा-मीठा आशीर्वाद<br>
पाने के लिए होती अकुलाहट।<br>
किन्तु अनपेक्षित आँसुओं के नब नव धारा से<br>
कण्ठ में दर्द होने लगता है।<br><br>
हिये में प्रकाश-सा होता है......<br>
खुलती है दिशाएँ उजला आँचल पसारे हुए<br>
रास्ते पर रात होते हुए भी मन में प्रातःप्रात<br>
नहा-सा मैं उठता भव्य किसी नव-स्फूर्ति से<br>
असह्य-सा स्वयं-बोध विश्व-चेतना-सा कुछ<br>
निज उत्तर-दायित्व की विशेष सविशेषता<br>
रास्ते पर चलते हुए गहरी गती देरी गति देती है।<br>
नगर का अमूर्त-सा तिलिस्मी आभालोक<br>
शोषण की सभ्यता का राक्षसी दुर्ग-रूप<br>
किन्तु उसके सम्मुख न निस्सहाय--<br>
--निरवलम्ब पहले-जैसा अनुभव मैं करता हूँ,<br>
न ही नहीं कर पाता हूँ।<br>
मौलिक जल-धारा मेरे वक्ष का शैल-गर्भ<br>
धोती ही रहती है<br>
रास्ता ख़त्म होता है कि संघर्षों के अंगारे<br>
लाल-लाल सितारों से<br>
बुलाते मुझे पास निचनिज<br>'''कभी''' मासमांस-पेशियों के लौह-कर्म-रत<br>मजूर लौहर लोहर के अथाह-बल<br>
प्रकाण्ड हथौड़े की <br>
दीख पड़ती है चोट।<br>
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