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हार कर बैठा चाँद एक बार की बातदिन, चंद्रमा माता से यह बोला अपनी ,‘‘सिलवा दो माँ से"कुर्ता मुझे ऊन का मोटा एक नाप का मेरी, माँ मुझको सिलवा देनंगे तन बारहों मास मैं यूँ ही घूमा करतागर्मी, वर्षा, जाड़ा हरदम बड़े कष्ट से सहता।"झिंगोला।
माँ हँसकर बोलीसनसन चलती हवा रात भर, सिर पर रख हाथजाड़े से मरता हूँ,चूमकर मुखड़ाठिठुर-ठिठुरकर किसी तरह यात्रा पूरी करता हूँ।
"बेटा खूब समझती हूँ मैं तेरा सारा दुखड़ालेकिन तू तो एक नाप में कभी नहीं रहता आसमान का सफर और यह मौसम हैजाड़े का,पूरा कभी, कभी आधा, बिलकुल कभी दिखता है"हो अगर तो ला दो कुर्ता ही कोई भाड़े का।’’
"आहा माँबच्चे की सुन बात कहा माता ने, ‘‘अरे सलोने! फिर तो हर दिन कुशल करें भगवान, लगें मत तुझको जादू-टोने। जाड़े की मेरी तो बात ठीक है, पर मैं तो डरती हूँ,एक नाप लिवा दे में कभी नहीं तुझको देखा करती हूँ। कभी एक अंगुल भर चौड़ा, कभी एक फुट मोटा,बड़ा किसी दिन हो जाता है, और किसी दिन छोटा। घटता-बढ़ता रोज किसी दिन ऐसा भी करता है,नहीं पूरे पंद्रह किसी की भी आँखों को दिखलाई पड़ता है। अब तू कुर्ते मुझे सिला दे।"ही ये बता, नाप तेरा किस रोज़ लिवाएँ,सी दें एक झिंगोला जो हर रोज बदन में आए?’’ ''-साभार: नंदन, दिसंबर, 1996, 10''
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