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{{KKRachna
|रचनाकार=पृथ्वी पाल रैणा
}}
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<poem>
ढोंग रचो या भ्रम पालो
सब खुद को झुठलाने जैसा है।
जग के इस दीवानेपन से क्या होगा।
सोचो इसके पार कहाँ जाना है?,
जग के दलदल का तो कोई छोर नहीं।
जो घुटनों तक डूब चुका हो-
इस दलदल में, और धंसेगा।
अहंकार का बोझ तो बढ़ता ही जाता है।
हाथ-पांव की हर कोशिश भारी पड़ती है।
खुद को खो देना ही मात्र उपाय है।
पार नहीं करना-
केवल ऊपर उठना है।
यही सत्य है,
इसे समझना ही पड़ता है।
मानो न मानो जीवन का सार यही है-
अहंकार से भारी कोई दण्ड नहीं-
जो हमने खुद अपने को दे रखा है।
</poem>
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|रचनाकार=पृथ्वी पाल रैणा
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ढोंग रचो या भ्रम पालो
सब खुद को झुठलाने जैसा है।
जग के इस दीवानेपन से क्या होगा।
सोचो इसके पार कहाँ जाना है?,
जग के दलदल का तो कोई छोर नहीं।
जो घुटनों तक डूब चुका हो-
इस दलदल में, और धंसेगा।
अहंकार का बोझ तो बढ़ता ही जाता है।
हाथ-पांव की हर कोशिश भारी पड़ती है।
खुद को खो देना ही मात्र उपाय है।
पार नहीं करना-
केवल ऊपर उठना है।
यही सत्य है,
इसे समझना ही पड़ता है।
मानो न मानो जीवन का सार यही है-
अहंकार से भारी कोई दण्ड नहीं-
जो हमने खुद अपने को दे रखा है।
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