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|रचनाकार=दिनेश कुमार स्वामी 'शबाब मेरठी']]
}}
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<poem>
मैंने लौ रक्खी थी और उसने हवा रक्खी थी
इक दिया था जहाँ दोनों की अना<ref>घमंड</ref> रक्खी थी
उसका ही काम अँधेरे को बढ़ाना होगा
जिसकी दूकान पे आँखों की दवा रक्खी थी
वो भी उस रोज़ बहुत ख़ुश था हवा भी थी ख़ुनक<ref>ठंडी</ref>
और कुछ थोड़ी से मैंने भी लगा रक्खी थी
तू नहीं है मिरी कश्ती का मुहाफ़िज़<ref>रक्षक</ref>वो है
मैंने मांझी से यही शर्त लगा रक्खी थी
घर मेरा छीनती कैसे न हवेली आख़िर
मैंने ख़ुद बीच की दीवार हटा रक्खी थी
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मैंने लौ रक्खी थी और उसने हवा रक्खी थी
इक दिया था जहाँ दोनों की अना<ref>घमंड</ref> रक्खी थी
उसका ही काम अँधेरे को बढ़ाना होगा
जिसकी दूकान पे आँखों की दवा रक्खी थी
वो भी उस रोज़ बहुत ख़ुश था हवा भी थी ख़ुनक<ref>ठंडी</ref>
और कुछ थोड़ी से मैंने भी लगा रक्खी थी
तू नहीं है मिरी कश्ती का मुहाफ़िज़<ref>रक्षक</ref>वो है
मैंने मांझी से यही शर्त लगा रक्खी थी
घर मेरा छीनती कैसे न हवेली आख़िर
मैंने ख़ुद बीच की दीवार हटा रक्खी थी
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