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मैंने लौ रक्खी थी और उसने हवा रक्खी थी{{KKGlobal}}इक दिया था जहाँ दोनों की अना<ref>घमंड</ref> रक्खी थी{{KKRachna|रचनाकार=दिनेश कुमार स्वामी 'शबाब मेरठी']]उसका ही काम अँधेरे को बढ़ाना होगाजिसकी दूकान पे आँखों की दवा रक्खी थी वो भी उस रोज़ बहुत ख़ुश था हवा भी थी ख़ुनक<ref>ठंडी</ref>और कुछ थोड़ी से मैंने भी लगा रक्खी थी तू नहीं है मिरी कश्ती का मुहाफ़िज़<ref>रक्षक</ref>वो हैमैंने मांझी से यही शर्त लगा रक्खी थी घर मेरा छीनती कैसे न हवेली आख़िरमैंने ख़ुद बीच की दीवार हटा रक्खी थी}}{{KKMeaningKKCatGhazal}}</poem>
भूख का सिलसिला बताता है