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गान्धारी-1 / शशि सहगल

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<poem>मैं नहीं जानती
कि मैं तुम्हें कितना चाहती हूं
कसमें खाने की उम्र नहीं है मेरी
न ही तुम्हारी
फिर भी तुम्हें किसी मुसीबत में फंसते देख
मैं खुद को तुमसे अलग नहीं कर पाती
शायद इसी कारण
कभी कहा था तुमने
‘तुम क्यों गांधारी बन जाती हो?’
जाने कैसा जादू था इस शब्द में
गांधारी शब्द की मूल्य-धर्मिता में!

मैंने तो पट्टी नहीं बांधी
पर क्या पट्टी सिर्फ आंखों पर ही बांधी जाती है?
आज मैंने उतार फेंकी है
गांधारी नाम के साथ ही उसकी वह पट्टी
जो शायद उसे धृतराष्ट्र से
जोड़ती और तोड़ती रही होगी!

मैं नहीं हूं गांधारी
यह विशेषण उपहासास्पद हो गया है
पर इसका यह अर्थ नहीं
कि मैं कुंती बनना चाहती हूं
मैं अपने नाम के साथ
जीती हूं, स्वाभिमान के साथ!
</poem>
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