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डायन / नीरा परमार

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<poem>
आक्रोश में गुर्राते हैं सास-ससुर देवर-जेठ
गुर्राता है गांव
‘मारो ऽऽऽ... मार डालो
पति को खा जाने वाली हत्यारिन
पापिन यह
छीन लो घर-दुआर खेत-पधार
खाली न जाए वार
कुचल डालो वजूद

यही डाकिन-पिशाचिन
लाती सूखा अकाल महामारी
यही आदिमखोर बाघिन-सी
गांव के सीवान पर
हैजा मलेरिया अकाल मरण
टोने-टोटके के खूनी पंजों के निशान
गुम हो जाती है!’

पंचों के न्याय पर चमकती हैं
अहेरिया की शिकारी कुत्ते-सी आंखें
जो खुले जबड़े फाड़ खाना चाहते हैं
मादा को

उनकी नजर में
यह मादा
न गांव की बेटी है
न बहन न बहू
ना ही किसी की मां
सन्देह के कांटों में घसीटी
लाठियों से पीटी
लहूलुहान
है सिर्फ एक डायन..!</poem>
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